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خط ۹۳۳: |
خط ۹۳۳: |
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| در اعدامِ '''مهدی رضایی''' در میدانِ تیرِ '''چیتگر'''
| | [http://shamlou.org/?p=460 '''سرود ابراهیم در آتش، ابراهیم در آتش(در اعدامِ مهدی رضایی در میدانِ تیرِ چیتگر)'''] |
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| در آوارِ خونینِ گرگومیش
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| دیگرگونه مردی آنک، | | دیگرگونه مردی آنک، |
خط ۹۸۱: |
خط ۹۷۹: |
| اندوهِ عشق و | | اندوهِ عشق و |
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| غمِ تنهایی بود. | | غمِ تنهایی بود |
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| □
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| «ــ آه، '''اسفندیارِ''' مغموم!
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| تو را آن به که چشم
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| فروپوشیده باشی!»
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| □
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| «ــ آیا '''نه'''
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| یکی '''نه'''
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| بسنده بود
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| که سرنوشتِ مرا بسازد؟
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| من
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| تنها فریاد زدم
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| '''نه'''!
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| من از
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| فرورفتن
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| تن زدم.
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| صدایی بودم من
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| ــ شکلی میانِ اشکال ــ،
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| و معنایی یافتم.
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| من '''بودم'''
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| و '''شدم'''،
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| نه زانگونه که غنچهیی
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| گُلی
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| یا ریشهیی
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| که جوانهیی
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| یا یکی دانه
| | .... |
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| که جنگلی ــ
| | '''۱۳۵۲''' |
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| راست بدانگونه
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| که عامیمردی
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| شهیدی؛
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| تا آسمان بر او نماز بَرَد.
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| □
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| من بینوا بندگکی سربراه
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| نبودم
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| و راهِ بهشتِ مینوی من
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| بُز روِ طوع و خاکساری
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| نبود:
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| مرا دیگرگونه خدایی میبایست
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| شایستهی آفرینهیی
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| که نوالهی ناگزیر را
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| گردن
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| کج نمیکند.
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| و خدایی
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| دیگرگونه
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| آفریدم».
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| □
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| دریغا شیرآهنکوه مردا
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| که تو بودی،
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| و کوهوار
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| پیش از آن که به خاک افتی
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| نستوه و استوار
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| مُرده بودی.
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| اما نه خدا و نه شیطان ــ
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| سرنوشتِ تو را
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| بُتی رقم زد
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| که دیگران
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| میپرستیدند.
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| بُتی که
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| | |
| دیگراناش
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| | |
| میپرستیدند.
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| '''۱۳۵۲'''
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خط ۱٬۱۰۹: |
خط ۹۹۱: |
| [http://shamlou.org/?cat=19 شعرها: مرثیههای خاک] | | [http://shamlou.org/?cat=19 شعرها: مرثیههای خاک] |
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| با چشمها
| | ... |
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| ز حیرتِ این صبحِ نابجای
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| خشکیده بر دریچهی خورشیدِ چارتاق
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| بر تارکِ سپیدهی این روزِ پابهزای،
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| دستانِ بستهام را
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| | |
| آزاد کردم از
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| | |
| زنجیرهای خواب.
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| فریاد برکشیدم: | | فریاد برکشیدم: |
خط ۱٬۱۹۷: |
خط ۱٬۰۶۷: |
| ''' نماز را''' | | ''' نماز را''' |
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| ''' از چاوشان نیامده بانگی!»''' | | ''' از چاوشان نیامده بانگی!»''' |
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| □
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| هر گاوگَندچاله دهانی
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| آتشفشانِ روشنِ خشمی شد:
| | ... |
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| '''«ــ این گول بین که روشنیِ آفتاب را'''
| | '''۱۳۴۶''' |
| | |
| ''' از ما دلیل میطلبد.»'''
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| | |
| توفانِ خندهها…
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| | |
| '''«ــ خورشید را گذاشته،'''
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| | |
| ''' میخواهد'''
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| ''' با اتکا به ساعتِ شماطهدارِ خویش'''
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| | |
| ''' بیچاره خلق را متقاعد کند'''
| |
| | |
| ''' که شب'''
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| ''' از نیمه نیز برنگذشتهست.»'''
| |
| | |
| توفانِ خندهها…
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| من
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| درد در رگانم
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| حسرت در استخوانم
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| چیزی نظیرِ آتش در جانم
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| پیچید.
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| سرتاسرِ وجودِ مرا
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| گویی
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| چیزی به هم فشرد
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| تا قطرهیی به تفتگیِ خورشید
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| جوشید از دو چشمم.
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| از تلخیِ تمامیِ دریاها
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| در اشکِ ناتوانیِ خود ساغری زدم.
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| | |
| آنان به آفتاب شیفته بودند
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| زیرا که آفتاب
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| تنهاترین حقیقتِشان بود
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| احساسِ واقعیتِشان بود.
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| با نور و گرمیاش
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| مفهومِ بیریای رفاقت بود
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| با تابناکیاش
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| مفهومِ بیفریبِ صداقت بود.
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| □
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| (ای کاش میتوانستند
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| از آفتاب یاد بگیرند
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| که بیدریغ باشند
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| در دردها و شادیهاشان
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| حتا
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| با نانِ خشکِشان. ــ
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| و کاردهایشان را
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| جز از برایِ قسمت کردن
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| بیرون نیاورند.)
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| □
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| افسوس!
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| آفتاب
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| مفهومِ بیدریغِ عدالت بود و
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| آنان به عدل شیفته بودند و
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| اکنون
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| با آفتابگونهیی
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| آنان را
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| اینگونه
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| دل
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| فریفته بودند!
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| □
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| ای کاش میتوانستم
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| خونِ رگانِ خود را
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| من
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| قطره
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| | |
| قطره
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| | |
| قطره
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| | |
| بگریم
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| | |
| تا باورم کنند.
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| | |
| ای کاش میتوانستم
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| | |
| ــ یک لحظه میتوانستم ای کاش ــ
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| بر شانههای خود بنشانم
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| این خلقِ بیشمار را،
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| | |
| گردِ حبابِ خاک بگردانم
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| تا با دو چشمِ خویش ببینند که خورشیدِشان کجاست
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| | |
| و باورم کنند.
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| | |
| ای کاش
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| | |
| میتوانستم!
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| '''۱۳۴۶'''
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| .............................. | | .............................. |
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| '''در این بنبست، ترانههای کوچک غربت''' | | [http://shamlou.org/?p=443 در این بنبست، ترانههای کوچک غربت] |
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| دهانت را میبویند
| | ... |
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| مبادا که گفته باشی دوستت میدارم.
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| دلت را میبویند
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| روزگارِ غریبیست، نازنین
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|
| و عشق را | | و عشق را |
خط ۱٬۳۷۳: |
خط ۱٬۰۹۵: |
| فروزان میدارند. | | فروزان میدارند. |
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| به اندیشیدن خطر مکن. | | به اندیشیدن خطر مکن |
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| روزگارِ غریبیست، نازنین
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| آن که بر در میکوبد شباهنگام
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| به کُشتنِ چراغ آمده است.
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| نور را در پستوی خانه نهان باید کرد
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| آنک قصاباناند
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| بر گذرگاهها مستقر
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| با کُنده و ساتوری خونآلود
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| روزگارِ غریبیست، نازنین
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| و تبسم را بر لبها جراحی میکنند
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| و ترانه را بر دهان.
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| شوق را در پستوی خانه نهان باید کرد
| | .... |
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| کبابِ قناری | | کبابِ قناری |